सच्चा प्रेम

मैं उससे प्यार करती थी 
वो मुझसे प्यार करता था
कहने को तो इकरार था
वही मेरा संसार था
माँ बाप ने मेरा रिश्ता
किसी और से तय कर दिया
बहती नदी की धार का
मानो रुख ही बदल दिया
अनकही कई बातें रह गई
आहिस्ता-आहिस्ता जिंदगी ही बदल गई
बन गई हमसफ़र लाल में लाली घुल गई 
परिवार ही मेरी ख़ुशियाँ बन गई
नए कोपलों से अंकुरित हुए
नए शाख पर पत्ते आए
धीरे-धीरे रंगबिरंगे फूल खिले
घर आँगन में खुशबू महकाएं 
भूल गई वो रिश्ते
जो कभी उसके साथ थे
गले में हाथ डाले
बिताए जो दिन रात थे
नियति की अपनी मंजूरी थी
फिर से उससे मिलाया
ऐसी क्या मजबूरी थी!
चलते चलते एक दिन
राह में फिर से वो टकरा गया
आँखें चार हुई उससे
और सवाल आ ही गया
तुमने मुझे क्यों छोड़ा
क्या मुझमें कमी थी
मैंने कहा तुम तब भी अच्छे थे
और आज भी मेरी पहली पसंद हो
शायद किस्मत को यही मंजूर था
कंपकपाते होंठ नीची आँखे
कह दिया बीत गई वो बातें
उस ज़माने का गरूर था
उसने कहा बस
यही सुनना चाहता था
मेरा हाथ थामा और कहा
तूने मेरा आज बोझ हल्का कर दिया
तुम सदा खुश रहो
अपनी दुनियाँ अपने जहान में
सलामत रहो आबाद रहो
अपने घर संसार में
ये कहकर वो चला गया
अब कभी नज़र न आऊंँगा
पर ये तय रहा अगले जन्म में 
दुल्हनियाँ तुझे अपनी ही बनाऊँगा...

और फिर उसने मुझे कभी मुड़कर नहीं देखा।

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