फिर कभी

ज़माने की तल्खियों से चित्कार करता मन
सौ शब्दों के जाल बुन प्रतिकार करता मन
ख़ामोशी कहती मन से आज मत उलझ किसी से…उलझेंगे…
फिर कभी
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सफ़र में थी बड़ी मौज मस्ती गाना बजाना
एक दूजे संग कभी ताश कभी लुडो खेलना
स्टेशन आया सब गले मिले खुश होकर कहा…
ईश्वर ने चाहा तो मिलेंगे…
फिर कभी
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तड़प रहे थे मेरे नैन बस इज़हार बाकी था
इश्क़ की बयाँ करते लबों में इंतज़ार बाकी था
तभी उसे याद आया कि मेरा अभी एमबीए का
अंतिम पेपर नहीं हुआ उसने कहा…
मेरी जानेमन…
फिर कभी
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किराने की दुकान पर कतार थी
सामान खरीदने वालों की भीड़ अपार थी
नंबर आया लिस्ट दी, सामान आया मैंने कहा डिस्काउंट दे दो भैया…
व्यापार तंग है दे देंगे….
फिर कभी
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काम वाली रोज आती सफाई करती
खाना बनाती कपड़े धोकर सूखा जाती
इतना काम तो करती हो चलो आज छत पर भी झाड़ू बुहारी कर आओ…
तपाक से बोली भाभी…
फिर कभी
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व्हाट्सअप पर ऑनलाइन कवि सम्मेलन
अद्भुत अद्वितीय कवियों से होता मिलन
सूची में नाम नहीं होता फिर भी देख कर कभी कह देते
हम भी भाग लें ले आदरणीय – ज़वाब यही मिलता…
फिर कभी
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फिर कभी….
भविष्य की आशा है,
कभी निराशा है
कभी संभावना है,
कभी मनभावना है
कभी उम्मीद है
कभी आकांक्षा है
बस आज के लिए अब इतना ही…. और लिखूँगी ज़नाब फिर कभी!!!

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