राखों के ढेर से अब भी काले धुएँ निकल रहे हैं
जमीं में दफन ख़ामोशी बन दिल में धधक रहे हैं
मासूम बेटी को मारकर नाले में जा गिरा दिया
धिक्कार दरिंदों का दुष्कर्म आँचल तार-तार किया।
खामोश गहरी आंखे टूटते बिखरते वृद्ध माता पिता
दिल में अथाह पीड़ा जीवन पल पल प्रताड़ित होता
चारों ओर भीड़ है आवाज़ है कोलाहल है गहन शोर है
न जीने की चाह न राह हर कदम मृत्यु की ओर है
हवस के दरिन्दे नोंच रहे थे अबला कोमल नारी को
पथराई आँखें निर्झर मन मौन से कहती सबको।
मैं कोमल फूल सी अबला नारी क्या ये मेरा कसूर था
दुर्गा काली चण्डिका रूप से नहीं बचा महिषासुर था
अब कोई निर्भया बन कर बलि नहीं चढ़ाई जाएगी
बदलते भारत की नारी सशक्त सबला बन दिखाएगी।