आज तो कोरोना का रोना है,परन्तु हमने देखा है कि जब-जब भी मानवता पर अत्याचार हुआ है क्यों हर बार कोई एक संगठन विनाश का कारण बनता है और उसके कृत्य पर लाखों आँखें नम हो जाती है, उसको जन्म देने वाली माँ उसकी जन्मोत्पत्ति पर रुदन करती है,अपने कोख को कोसती है, स्वयँ को असहाय समझती है, दुख तब असहनीय हो जाता है जब पूरा समाज और देश उसके ही रिश्तेदारों को जीवनपर्यंत कटघरे मे खड़ा कर तिरस्कृत कर देता है,उसका जीवन पीढ़ी दर पीढ़ी इस पाप से मुक्त नहीं हो पाता है और तो और उसके पूर्वज भी खून के आँसू रोते हैं , परमपिता भी उसे स्वीकारता नहीं है, ऐसी संतान से सिर्फ परमपिता परमात्मा ही नहीं उसका भार वहन करने वाली माँ धरती भी पीड़ित होकर रुदन व क्रंदन करती है,तुम्हारा ऐसा जीवन किस काम का!! जिसके साथ भी और जिसके जाने के बाद भी… अभिशाप…एक बात तुम्हें समझ लेना चाहिए कि इसका कोई क्षमादान नहीं है।
काश इस बार बरस जाए मानवता की बारिश, लोगों की रूह पर धूल बहुत हो गई है।
जब माँ की कोख सहम जाए
किलकारियाँ खामोश हो जाए
आँखों को खौफ़ नज़र आए
इंसानियत शर्म से झुक जाए…..
तो समझ लो कुछ गलत है।
विकास या विनाश… हमें क्या चाहिए ये हमें तय करना है,
हर आँख नम न हो हमारे हालात और बदतर न हो,इसके लिए अदम्य साहस, वीरता, सतर्कता, सेवा, सहृदयता, संकल्प और संघर्ष का समय है, जिससे हम अपने ही पराक्रम का नमन कर सके।