कुछ तो कहो

कुछ  तो कहो ये दीवारें भी अब कहने लगी है 
अकेली तन्हा पथराई सिमटी सी रहने लगी है 
 कितने  बरस  बीते हैं  उसके  आने की आस में
 ज़र्र-ज़र्र टूटकर ज़मी पर रोज़ बिखरने लगी है।



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