मैं थकी मांदी लौटी अपने घर
बाहें पसारे बेटी खड़ी द्वार पर
दौड़ कर गई रसोई घर
लेकर आई एक गिलास पानी
पिलाया और कहा
तुम थकी हो मेरी माँ
थोड़ी देर बैठो मेरे पास
बताओ तुम्हारे दफ़्तर में
क्या हुआ आज ख़ास
कुछ देर गुफ़्तगू हुई
मन हो गया हल्का
चंद पलों में थकान दूर हो गई
उठी बाल बांधे मैंने
काम पर लग गई
मन ही मन सोचने लगी
मेरी बेटी कितनी बड़ी हो गई
कल जिसे मैं जीने की राह दिखाती थी
आज वो ही मेरी गुरु हो गई।
जीने की राह वहीं से निकलती है, जहाँ जीने की चाह होती है, उम्मीद छिपी होती हैं और ज़िंदगी चलती रहती है।