हाय रे ये ठिठुरती ठंड!!!! पौष माह ये सर्द ठिठुरती रात निर्धन को प्रकृति की कठोर सौगात थर थर कांपते उसके अंग प्रत्यंग सोते जागते करवट लेकर रात निकाले गुदड़ी के संग। हर सुबह सोने की किरणों का इंतजार कभी-कभी हो जाता बेबस और लाचार जब ओले वृष्टि से तापमान गिरता बार बार फिर भी नहीं हारता निरंतर लड़ता कोशिश करता जीने की हर बार।
राह चलते निर्धन पर पड़ती जब नजर!
आघात करती प्रकृकि की यह ठिठुरती ठंड।
कपकपाते तन देख सुकड़ते बार बार!
तड़फ उठता है मन देख कर्मो का दंड।
जिस तरह वह निर्धन सूर्य की किरणों को तरसता रहता है क्या हम ऐसी स्थिति में उसपर शाल अर्पण नही कर सकते ।
दुनिया की अजब रस्म
निर्जीव शरीर पर शाल का अंबार लग जाता है वही ठिठुरता निर्धन उसके लिए तरसता रहता है। 🙏🏼🙏🏼
निर्जीव शरीर पर शाल का अंबार लग जाता है वही ठिठुरता निर्धन उसके लिए तरसता रहता है…very well written