ग़ज़ल को ले चलो अब

चुन चुन के लाए हम सितारें 
हाथ लगाया अंगारा लगता है 

भीड़ बढ़ती बना काफ़िला 
क्यूँ कोई नहीं समझता है 

खोद कर थक गया फावड़ा 
पाताल भी सूखा मिलता है 

जल कर सूराख बना बड़ा 
सूरज गगन में दहकता है 

अंतिम रात गहन अमावस 
चाँद खिलने को तड़पता है 

थक गई धरा कह कर व्यथा 
चहूँ ओर यहाँ अँधेरा पलता है 

नदियों के समा जाने की प्रीत 
साहिल मन में प्यास रखता है 

मौसम अनुकूल अंकुरित हो 
आस का बीज़ सदा पलता है 

शिकायतें भरी है इस दौर से
कोई किसी की नहीं सुनता है

अनचाहा अनदेखा खौफ भरा
ये वक़्त अब नहीं संभलता है

ग़ज़ल को ले चलो अब यहाँ से
महफ़िल में दर्दे साज सजता है।

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