आज नहीं थमेगा मेरा मन दिखेगा अस्तित्व का दर्पण कलम लिखेगी अल्फाज़ मचलेंगे होगा जज़्बातो का अर्पण। कौन हूँ कहाँ से आई हूँ क्या जीवन का उद्देश्य क्या मुझे करना है अंतर्मन को कुछ कहना है। मैं मधु निज़ अस्तित्व को ढूँढती माँ धरती को कर प्रणाम रोज सुबह होता बैचेन मन हर शाम रहता अधूरा काम। ढ़ल रही हूँ किसी बूँद की प्यास में पंछी की तरह उड़ु खुले आकाश में बुलबुल की तरह चहकुं बगिया में बन अछूती हस्ती मधुमास में। सादगी स्वाभिमान भर जाए पैमानों पर गूँज उठे मिठास मेरे शब्दों की हर पन्नों पर अदम्य साहस सह अस्तित्व से भर जाए मन धरा भी कह उठे मधु आज मैं तुमसे हूँ प्रसन्न।
2019-11-05